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जानी बनाम रामप्रसाद

उन्नयन
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सुबह की हाड़ कपाती ठण्ड में थोड़ा टहलने के विचार से बाहर निकला तभी एक घोर असमानता का दृश्य देखकर ह्रदय द्रवित हो गया । बगल के शर्मा जी अपने प्यारे कुत्ते ‘जानी ‘ को पुत्रवत भाव से टहलाते हुए लिए जा रहे थे – मोटा ,तगड़ा,बड़ी बड़ी आँखे ,सुन्दर रोबदार चेहरा ,शरीर पर कोई गन्दगी नहीं और गले में मोटा काला पट्टा और उसमे बंधी एक सुन्दर जंजीर जिसका एक शिरा शर्मा जी ने पकड़ रखा था। वही दूसरे तरफ मुह्हले के ” आवारो ” की श्रेणी में आने वाले कुतिया के बच्चे ‘ रामप्रसाद’ (आखिर उसे भी नाम दिए जाने का हक़ मिलना चाहिए ),जो कि अभी कुछ ही महीने पहले पैदा हुआ था , को ठण्ड में कपकपाते देखा. उसके या उसकी माँ की हालत पर शायद किसी आते जाते की नजर भी नहीं पड़ रही थी।छोटी- छोटी आँखे , काला रंग और घुंघराले बाल , आधे बदन पे मिट्टी लपेटे हुए रामप्रसाद कपकपाते हुए शायद अपने भाग्य को कोश रहा था। उसका दुःख मानो और बढ़ गया जब जानी को बगल से जाते देखा और कू हू – कू हू के आर्त स्वर में अपना दुःख व्यक्त कोशिश की , परन्तु उसी छड़ जानी ने अपने जोरदार आवाज से उसे डपट दिया और माँ को बचाव में आना पड़ा।

नाले के पास लगे कूड़े के ढेर की ओट में बैठा रामप्रसाद शायद यही सोच रहा था कि ‘ क्या वो और जानी दोनों हि कुत्ते है ?’ यदि हाँ तो दुनिया का व्यवहार दोनों के प्रति इतना भेदभावपूर्ण क्यों है ? जहा एक तरफ शर्मा जी जानी को अपने बेटे की तरह पालते है और सभी लोग उसकी सराहना करते है वहि समाज उसे मरने के लिए ठण्ड में क्यों छोड़ देता है ? अगर हमारी प्रजाति एक है तो क्या ये अंतर हमारे जन्मस्थान और हमारे रहन सहन का है ? परन्तु इसमे मेरा तो कोई बस नहीं। तो क्या मै भी कभी जानी की तरह बन सकता हु ? क्या मुझे भी एक सम्मानित जीवन जीने का मौका नहीं मिलना चाहिए ? इन्ही प्रश्नो को अपने मन में लिए रामप्रसाद चुपचाप बैठा कातर नजरो से सबकी तरफ देख रहा था।

पर एक अंतर था जो शायद रामप्रसाद समझ नहीं पा रहा था या सुख और भौतिकवादिता की आस से भरी उसकी आँखे देख नहीं पा रही थी , वो था “आजादी ” रामप्रसाद आजाद था जानी नहीं।यदपि जानी का खान पान और जीवन देखने में विलाशितापूर्ण लगता था परन्तु उसे वही बिस्किट और ब्रेड खाने पड़ते थे जो शर्मा जी देते थे ,कभी कभी तो खाने में आनाकानी करने या कुछ बाहर का खा लेने पर उसकी पिटाई भी होती थी। ढंग से नहाये न या हर महीने इंजेक्शन न लगवाये तो कोपभाजक होना पड़ता था। उसके पसंद या नापसंद होने पर भी मालिको के राग में राग मिलाना पड़ता था.इधर रामप्रसाद थोड़ा दिन निकलते ही मुह्हले की दुकानो की तरफ चल निकलता , कभी बची हुई रोटिया , फेंके गए ब्रेड के टुकड़े तो कभी मीट को बोटिया भी हाथ लग जाती थी. जमकर खाता, बिना किसी रोक टोक के ,हा थोड़ा अपमानजनक तो था पर शायद स्वाभिमान खोने से बेहतर। वह कभी भी मना कर सकता था और कभी कभी दूसरे कुत्तो के साथ झड़प भी कर सकता था अपनी आजादी और वर्चश्व के अभिव्यक्ति में।उसके टहलने घूमने का न तो समय निश्चित था ना अधिकारक्षेत्र। रामप्रसाद को खाने- पीने ,घूमने यहाँ तक कि बड़े होकर अपने लिए संगिनी ढूढने की भी आजादी है ,जो जानी शायद सपनो में भी नहीं सोच सकता था । रामप्रसाद अपने प्रजाति के क्रमिक विकाश ,परम्परा एवं विरासत के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। आखिर एक कुत्ता ,कुत्ते जैसा ना हो तो कैसा हो ? कुत्ते के विकाश का पैमाना कुत्ते के ही स्तर से मापा जाना चाहिये। कुत्ते का विकाश ये है की वो एक बेहतर कुत्ता बने न कि मनुष्य। जानी को रोज मनुष्य जैसा बनाने का प्रयास किया जाता है , वह भले ही आकर्षण केंद्र हो सकता है पर आदर्श नहीं क्योकि वो ज्यादा मनुष्य सदृश है बेहतर कुत्तो जैसा नहीं। शायद यही रहष्य है जो रामप्रसाद को उसके अस्तित्व को सबल बनाये रखने और प्राप्य जीवन को खुशहाल व्यतीत करने की प्रेरणा देता है। परन्तु उसके विह्वल मन में ये प्रश्न सदा ही रहता है कि उस जैसे हजारो कुत्तो को अपना अस्तित्व बचाए रखते हुए बेहतर कुत्ता बनने का अवसर क्यों नहीं दिया जाता ?

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